गंगा जमुनी तहजीब का मरकज़ हाजी वारिस अली शाह के मज़ार पर हिन्दू मुसलमानो ने जमकर खेली होली,फिरकापरस्त ताक़तों के मुहँ पर पड़ा तमाचा

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बाराबंकी.जो रब हैं वही राम का पैगाम देने वाले हाजी वारिस अली शाह की मज़ार ,अत्यचार पर सदाचार और असत्य पर सत्य की जीत का जश्न होली हिदू मुसलमानो ने जमकर खेलते हुए भारत की एकता और गंगा जमुनी तहजीब का आज फिर परचम लहराकर फिरकापरस्त ताक़तों के मुहँ पर तमाचा लगाकर पूरी दुनिया मे इंसानियत और एक बनो नेक बनो का पैगाम दिया।

आज काशी में होली है, मथुरा में और ब्रज में भी और आपके गांव और शहर में भी देवा शरीफ में सूफी हाजी वारिस अली शाह की दरगाह इकलौती ऐसी दरगाह है जहाँ हर साल होली के दिन ही होली खेली जाती है और इस होली के रंग में साराबोर होने के लिए देश भर से हाजी बाबा के मुरीद देवा शरीफ आते हैं। यहां कब से होली होती है, यह सही-सही किसी को नहीं मालूम। लेकिन इसमें शिरकत करने मुल्क के तमाम हिस्सों से तमाम मज़हबों के लोग आते हैं। हाजी वारिस अली शाह का शजरा सीधे मोहम्मद साहब के नवासे कर्बला में सत्य,इंसाफ ,सच्चाई और इंसानियत बचाने के लिए क़ुरबानी देने वाले हज़रत इमाम हुसैन से है ,हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हिंदुस्तान से बेहद मोहब्बत करते थे और उन्होंने ज़ालिम बादशाह यज़ीद से कहा भी था कि मुझे हिन्द जाने दो वहा के लोग दयालू और नेक होते हैं।

सफ़ेद रंग की दरगाह के आंगन में हर तरफ रंग उड़ रहे थे, लाल, पीले, हरे, गुलाबी और सूफी फ़क़ीर उन रंगों में रंगे हुए थे। यह सूखे रंगों से होली खेलते हैं। दरगाह के चारों तरफ रक़्स करते हुए गुलाल उड़ाते हैं। शहजादे आलम वारसी कहते हैं “सरकार ने फरमान था कि मोहब्बत में हर धर्म एक है। उन्हीं सरकार ने ही यहां होली खेलने की रवायत शुरू की थी। सरकार खुद होली खेलते थे और उनके सैकड़ों मुरीद जिनके मज़हब अलग थे, जिनकी जुबानें जुदा, वे उनके साथ यहां होली खेलने आते थे।”

दूर दूर से आये लोग
हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर आज हमें कई जायरीन मिले, जिनमें महाराष्ट्र दिल्ली और देश के कई अन्य जगहों से लोग आये हैं। हाजी वारिस पाक के दरबार में होली खेलने कई किन्नर भी आए थे। बताते हैं कि वह पहले कभी होली नहीं खेलते थे, लेकिन जब से बाबा की मज़ार की होली देखी, हर साल यहां होली खेलने आते हैं।

हाजी वारिस अली शाह का भी एक रंग
दरअसल सूफियों का दिल इतना बड़ा था कि उसमें सारा जहां समा जाए। होली की एक समृद्ध परंपरा उनके कलामो में मिलती है। “होरी खेलूंगी कह-कह बिस्मिल्लाह, बूंद पड़ी इनल्लाह।” इसे तमाम शास्त्रीय गायकों ने गाया है। सूफी शाह नियाज़ का कलम आबिदा परवीन ने गया है और खुसरो अभी भी गाए जाते हैं, “खेलूंगी होली ख्वाजा घर आये” या फिर “तोरा रंग मन भायो मोइउद्दीन।” इनमें से एक रंग हाजी वारिस अली शाह का भी है, जिसमें उनके मुरीद दूर-दूर से यहाँ रंगने आते हैं  !

देवा में होली के रंग में सराबोर होने राज्यसभा सांसद पी एल पूनिया भी पहुचे। उन्होने भाई चारे का पैगाम देते हुए कहा कि देवा मज़ार पर ये होली हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतीक है,अराजकतत्वो के मुह पर तमाचा है।

 

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