जाति युद्ध के रूप में लड़ा जायेगा लोकसभा का अगला चुनाव

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लखनऊ । दिन में चुनाव जीता और रात में अखिलेश यादव बसपा प्रमुख मायावती से मिलने उनके घर पहुंच गए। चुनाव परिणाम आने के बाद भी यदि सपा-बसपा के भावी मिलन को लेकर कोई शंका रह गई थी तो इस भेंट ने वह खत्म कर दी। तय हो गया कि 2019 की सबसे बड़ी लड़ाई उत्तर प्रदेश में लड़ी जानी है।

यह भी साफ हो गया कि लोकसभा का अगला चुनाव वही जाति युद्ध होने वाला है जो सपा-बसपा की शक्ति है और जिसकी काट के लिए भाजपा ने समग्र हिंदुत्व का झंडा उठा रखा है।

अभी तक भाजपा 2014 में मिली 73 सीटों के चमत्कारिक प्रदर्शन को ही दोहराने के दबाव में थी पर अब उसे इस चुनौती से भी जूझना है कि विपक्ष विभाजित नहीं है। अखिलेश यादव और मायावती की भेंट ने 26 साल पहले की वह घटना ताजा कर दी जब कांशीराम से मिलने मुलायम सिंह यादव गए थे। इस ऐतिहासिक भेंट के साल भीतर ही सपा बसपा ने भाजपा को हरा दिया था।

बुधवार को हुई अखिलेश-मायावती भेंट में एक और चेहरे को भी ध्यान से देखा जाना चाहिए। इस मुलाकात में बसपा महासचिव सतीश मिश्र भी मौजूद थे। इस तरह समीकरण बनता है, यादव-जाटव और ब्राह्मण। मुसलमानों को भी जोड़ लें तो एक बड़ी राजनीतिक ताकत की तस्वीर उभरती है। बेशक, पहले भी मुसलमान भाजपा के खिलाफ थे लेकिन, अब उनमें भाजपा को हराने का इरादा अधिक पुख्ता है। इस संभावित विपक्षी एकता में यदि कांग्रेस भी आ मिलती है तो भले उसकी ताकत अभी कम दिखती हो पर भाजपा से लडऩे का एक हथियार तो वह भी होगी। हां, यह एकता इस बात पर निर्भर करेगी कि अखिलेश और मायावती में एक दूसरे को आगे रखने में कितनी सहमति बनती है और कांग्रेस तीसरे खिलाड़ी की तरह खेलने को तैयार होती है या नहीं। ढाई दशक पहले सपा-बसपा गठबंधन महज दो साल बाद ही टूट भी गया था और 1996 में कांग्रेस-बसपा दोस्ती भी नहीं चल सकी थी।

लेकिन, सवाल यह है कि बुधवार को आए उपचुनाव परिणाम भाजपा के खिलाफ क्या इसलिए गए कि बसपा ने अपने वोट सपा को ट्रांसफर करने का फैसला किया था। क्या भाजपा इसलिए हार गई कि सपा-बसपा पर अचानक मतदाताओं का भरोसा जाग गया। केवल एक वर्ष पहले जिन दलों को जनता बहुत जोर से खारिज कर चुकी थी, उनमें इतनी ताकत क्या केवल वोटों के रणनीतिक तबादले से आ गई। यह कारण भी हो सकते हैं लेकिन, कुछ और भी है जो सरकार को सोचना है।

राज्य सरकार विकास पर बहुत जोर देती है। उसका दावा है कि जो काम वह कर रही है, वे प्रदेश को प्रगति के ऐसे पथ पर ले जा रहे हैं जिसके बारे में पहले कभी सोचा नहीं गया था। ऐसा है तो फिर मौरंग महंगी क्यों बिक रही है। मार्च 2017 में जो मौरंग 35 रुपये घनफीट थी वही अब 105 रुपये घनफीट बिक रही है। तब 22 से 25 रुपये बिकने वाली बालू इस समय 35 रुपये है। गिट्टी के दामों में 15 रुपये का उछाल है और सीमेंट में करीब 70 रुपये का।

गायत्री प्रजापति को सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों में कितना ही घेर ले, कटु सत्य यह है कि 2017 के दाम गायत्री के कार्यकाल के ही थे। जनता की जरूरतें बहुत छोटी होती हैं। उनका जीवन सरकार की पारदर्शी खनन नीति से नहीं, मौरंग के दामों से चलता है। अपने विधायकों और कार्यकर्ताओं का असंतोष और ऊंचाहार कांड जैसे सवाल भी भाजपा को हल करने होंगे।

…और भाजपा की हार का कारण अफसरों के कामकाज में भी छुपा है।

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