तहलका टुडे टीम/अज़मी रिज़वी
ज़ैदपुर बाराबंकी में दूसरो की खुशियो मे अपनी रंग बिरंगी आतिशबाजी से रंग भरने वाले कस्बे के आतशबाज़ो की खुद की जिंदगी बेरंग हो गयी है।इस हुनर के कारीगर अब भुखमरी से लड़ रहे है,वही कई ऐसे है जिन्होंने ये पेशा ही बदल दिया है।
फैक्ट्री मेड और चायनीज़ आतिशबाज़ी के आ जाने व सरकार द्वारा लगातार सख्त होते नियमो के चलते अब इन आतशबाज़ो के सामने रोजी रोटी के लाले पड़ गये है।
कभी प्रदेश के साथ ही दिल्ली मे गणतंत्र दिवस के अवसर पर यहां के आतशबाज़ अपनी आतिशबाजी का शानदार प्रदर्शन कर सभी का मन मोह लेते थे।
इन अवसरो पर यहा के आतशबाज़ो को कई बार सम्मान भी मिला है।
लेकिन समय के साथ प्रतिस्पर्धा के चलते और सरकार द्वारा किसी तरह का सहयोग नही मिल पाने व शिवाकाशी के फैक्ट्री मेड पटाखो के आ जाने से यहां के हाथो से बनाने वाले इन हुनरमंदो आतशबाज़ो की धीरे धीरे पूछ कम होने लगी।
जिससे यहां के बने पटाखो की मांग भी कम होती चली गयी।जिसके चलते जहां कई आतशबाजो ने अपने इस पुश्तैनी काम को बन्द कर दूसरे कामो मे लग गये वही अभी भी लगभग नौ आतशबाज लाइसेंस के तहत यहां हाथ से पटाखो का निर्माण करते है।लेकिन अब इन आतशबाज़ो के लिए भी इस काम से साल भर की रोटी कमाना मुश्किल हो रहा है।
वही कोरोना संक्रमण के चलते तो अब इनके पटाखों का कारोबार बन्द होने की कगार पर पहुंच गया है।
आज जब हमारे संवाददाता अज़मी रिज़वी आतिशबाजी की दुकानो और गोदामो का जायजा लेने पहुचे तब कस्बे के प्रसिद्ध आतशबाज़ आफ़ाक अहमद के पुत्र अल्ताफ़ ने बताया कि उनकी तीन पीढियो से आतशबाज़ी का काम होता आ रहा है।उनके दादा मरहूम मक़बूल अहमद 15 अगस्त और 26 जनवरी के अवसर पर दिल्ली मे लाल किले पर अपनी हाथो की बनाई आतशबाज़ी छुड़ाने जाते थे।
जहां उन्हे कई बार प्रथम पुरस्कार भी मिला था।वही वह दशहरे के मौके पर परेड मे भी वर्षो तक अपनी आतशबाजी का जौहर दिखाते रहे।अल्ताफ ने यह भी बताया कि अब आतशबाजी का काम कम होता जा रहा है जिसकी वजह से साल भर घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है।वही पैसे नही होने के चलते कोई दूसरा कारोबार भी नही कर सकते है।वही एक अन्य आतशबाज़ गुलाम वारिस के पुत्र गामा ने बताया कि उनके यहाँ से हर वर्ष देवा मेला व महादेवा मेला मे आतशबाज़ी जाती है जहा कई बार उनको प्रथम पुरस्कार भी दिया गया है।
उन्होने आगे बताया कि पहले से ही आतशबाजी की बिक्री मे कमी के चलते करोबार काफी कम हो गया था।वही पिछले दो वर्षो से कोरोना के चलते हमारा कारोबार बन्द होने की कगार पर पहुंच गया है।जिसके चलते साल भर का खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा है।उन्होने बताया कि अब तो लाइसेंस मे लगने वाला खर्च भी निकालना मुश्किल हो गया है।सब किसी तरह जिंदगी चल रही है।वही कस्बे के ही एक अन्य आतशबाज़ जावेद अहमद ने बताया कि हमारा आतशबाजी का बनाने और बेचने का लाइसेंस है।लेकिन अब इस कारोबार मे काफी दिक्कते हो गयी है।कोरोना काल की वजह से ग्राहक आ नही रहे है।महंगाई भी काफी बढ़ गयी है।जिसका असर पटाखो की बिक्री पर भी पड़ा है।जिसके चलते बिक्री नही के बाराबर होती है।अब बैठकर ग्राहको का इंतजार करते है।कुल मिलाकर अगर यह कहा जाये कि सरकार द्वारा इन लोगो की किसी प्रकार से सहायता नही करने के चलते कस्बे मे पीढियों से चले आ रहे आतशबाज़ी का करोबार करने वाले इन हुनरमंदो का हुनर दम तोड़ने की कगार पर पहुंच चुका है।अगर सरकार ने इन हुनरमंदो की तरफ ध्यान न दिया तो आने वाले समय मे हाथो से आतशबाजी बनाने की कला दम तोड़ देगी।
आतशबाज़ी का करोबार करने वाले पहले जहां काफी संख्या मे थे वही अब मात्र आठ ही लाइसेंसधारी बचे है।जिसमे 4 आतशबाज़ी के लाइसेंस बिक्री के है वही 4 लाइसेंस निर्माण और बिक्री दोनो के है।
जैदपुर कस्बे के बाहर अब्दुल्लापुर रोड पर निर्माण करने वाले आतशबाजो ने आबादी से दूर अपने गोदाम बना रखे है।जहां हाथो से आतशबाजी का निर्माण किया जाता है।वही बिक्री के लिए दुकाने भी सरकारी नियमो के हिसाब से ही बाहर स्थित है।दुकानो और गोदामो पर आग बुझाने के सिलेंडर सहित बालू,ड्रम मे पानी आदि का भी पूरा इंतजाम कर रखा है।वही समय समय पर प्रशासन के अधिकारियो द्वारा यहाँ चेकिंग भी की जाती है।