उत्तर प्रदेश लोकसभा उप चुनाव में कांग्रेस घर की रही न घाट की

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लखनऊ । उत्तर प्रदेश में लोकसभा उप चुनाव में राष्ट्रीय दल कांग्रेस का हाल बेहद खराब ही रहा। यहां गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस के हालात घर के रहे, न घाट के जैसे रहे। गठबंधन की सियायत में हाशिए पर पहुंचने के साथ ही कांग्रेस के जनाधार में भी कमी आयी। इसके साथ संगठनात्मक कमजोरी फिर जाहिर हुई तो मिशन 2019 की तैयारी पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।

अर्से से प्रदेश की राजनीति में वापसी की उम्मीद लगाए कांग्रेस के लिए गोरखपुर व फूलपुर उपचुनाव में मिली करारी शिकस्त दोहरा झटका जैसा है। गत वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन करने वाली समाजवादी पार्टी ने एक वर्ष के भीतर कांग्रेस का हाथ छोड़ दिया। राष्ट्रीय लोकदल और एनसीपी जैसी स्थानीय पार्टियां भी कांग्रेस से किनारा करके मैदान में हैं। वहीं बहुजन समाज पार्टी ने यहां पर समाजवादी पार्टी को समर्थन देकर जीत में अपनी भागीदारी बना ली। प्रदेश महामंत्री रहे प्रवीण प्रताप तोमर का कहना है कि गठबंधन को लेकर यूं ही उदासीनता बनी रही तो वर्ष 2019 में भी मंसूबे पूरे नहीं हो सकेंगे।

प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी में नजदीकी को भले ही ‘लेनदेन का गठजोड़’बता रहे हो परंतु भाजपा विरोधी गठबंधन में किनारे रहना बड़ी रणनीतिक चूक माना जा रहा है।

पं. नेहरू के फूलपुर में पिछडऩा खतरे की घंटी

जिस फूलपुर सीट पर उपचुनाव में कांग्रेस के मनीष मिश्रा को मात्र 19,353 वोट हासिल हुए उसे 1952 में पं. नेहरू ने अपने लिए चुना था। राममनोहर लोहिया व जनेश्वर मिश्र जैसे दिग्गज यहां कांग्रेस से हार चुके हैं। अब उपचुनाव में कांग्रेस को निर्दलीय व जेल में बंद अतीक अहमद से 48,094 भी कम वोट मिले हैं। वर्ष 2014 में मिली वोटों से तुलना करें तो मोदी लहर में भी कांग्रेस के मौहम्मद कैफ 58,127 वोट पाने में सफल हुए थे। गोरखपुर में भी कांग्रेस के वोटों में कमी आयी। 2014 में अष्टभुजा प्रसाद त्रिपाठी को 45,719 मत मिले, जबकि उपचुनाव में डॉ. सुरहीता करीम 18,848 वोटों से ज्यादा नहीं जुटा सकीं। वोट कम मिलने की वजह बताते हुए प्रवक्ता वीरेंद्र मदान का कहना है कि जातिवादी गठजोड़ से नुकसान हुआ।

चुनाव प्रबंधन में फिसड्डी

संगठनात्मक कमजोरी की असर उपचुनाव में भी दिखा। प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर के भरोसे ही उप चुनाव लड़ा गया। यहां तक प्रदेश प्रभारी व राष्ट्रीय महासचिव गुलाम नबी आजाद ने भी विशेष दिलचस्पी नहीं ली और प्रचार से दूरी बनाए रखी। पूर्व केंद्रीय मंत्रियों ने भी उप चुनाव को राम भरोसे छोड़ रखा, जिस कारण कार्यकर्ताओं में जोश न जग सका।

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