तब 92 था, अब 92 का हूँ

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शबाहत हुसैन विजेता

उस रोज़ सोमनाथ में बड़ा उत्साह था. रथ पर लगे झंडे मस्त हवा के साथ लहरा रहे थे. लोगों में जोश था. नारों से माहौल गूँज रहा था. बुज़ुर्ग सवार ने रथ पर चढ़ते हुए एलान किया कि वह अपने फैसलाकुन सफ़र पर निकल रहा है. मुगलों ने अयोध्या में जो सल्तनत छीन ली थी, उसे वापस लेने जा रहा है. इस बार जो भी कीमत अदा करनी पड़े लेकिन कदम पीछे नहीं हटेंगे. जोश से लबरेज़ लोगों ने आसमान तक पहुँच जाने वाले नारे लगाते हुए रथ को विदा किया.

मस्ती में झूमता रथ अयोध्या की तरफ बढ़ा. रथ का पहिया मंज़िल की तरफ घूमता जा रहा था लेकिन मुगलिया सल्तनत ने अयोध्या में जो लकीर खींची थी वह और भी गहरी होती जा रही थी. कई सूबों से गुज़रता रथ अश्वमेध वाला रथ साबित नहीं हुआ. बिहार के राजा ने न सिर्फ रथ रोक लिया बल्कि रथ पर सवार बुज़ुर्ग को सीखचों के पीछे डाल दिया.

बिहार में रुके रथ ने पूरे मुल्क में एक ख़ास तरह की आंधी चला दी. इस आंधी ने एक ख़ास सोच की नई पार्टी के लिए हुकूमत की राह तैयार कर दी. रथ पर लगाए गए एक ख़ास तरह के झंडे जगह-जगह दिखाई देने लगे. सीखचों से आज़ाद हुआ रथ सवार सियासत का पुरोधा समझा जाने लगा. वह हुकूमत में रहे या नहीं रहे मगर उसकी तूती बोलती रही. वह जिस तरफ भी गुज़र जाता उसके लिए रेड कार्पेट बिछा दिए जाते. वह आम लोगो में जाता तो आम लोग उसकी इज्ज़त में झुक जाते. वह हुकूमत के पास जाता तो हुकूमत भी उसकी राय लेकर धन्य हो जाती.

सफ़ेद घनी मूंछों वाला वह लम्बे कद का शख्स सियासत में जिस राह को तैयार कर रहा था उसमें पीछे आने वालों के लिए तो फूल बिछते जा रहे थे लेकिन उसके हर नए कदम के नीचे कांटे थे. चलते-चलते जब वह रुकता और कुर्सी पर बैठता तो सैंडिल से झांकती उसके पाँव की उँगलियाँ यही सवाल करती नज़र आतीं कि सारे के सारे कांटे इन्हीं पाँव के नीचे क्यों आते हैं? रथ का सवार अक्सर ठुड्डी पर मुट्ठी टिकाकर कुछ सोचता नज़र आता था. वह क्या सोचता था कभी बताया नहीं लेकिन लगता है कि शायद वह यह सोचता हो कि क्या कोई मामूली इंसान भगवान का घर बना सकता है. हो सकता है कि वह यह सोचता हो कि क्या भगवान के नाम पर सियासत होनी चाहिए. क्या भगवान को पक्की इमारत से निकालकर कपड़े के पंडाल में पहुंचा देना गुनाह नहीं था. भगवान के लिए तो क्या मंदिर और क्या मस्जिद, दोनों एक जैसे थे. कहीं उसी गुनाह की वजह से ही तो देश की सर्वोच्च कुर्सी पास आकर दूर निकल गई. कहीं उसी गलती की वजह से ही तो सबसे बड़ी सियासी कुर्सी पर शिष्य का कब्ज़ा हो गया.

रथ सवार पीछे हाथ कर अपने लॉन में टहलते हुए अक्सर सोचता था कि जिसे सियासत का ककहरा पढ़ाया वह अब राय लेने भी नहीं आता. वह अक्सर सोचता कि जिन मुद्दों को लेकर सोमनाथ से चला था वह तो अब भी जहाँ के तहां खड़े हैं. हुकूमत हमारे पास है मगर मुगलिया सल्तनत ने जो लकीर खींची थी वह तो अब भी वैसी ही खिंची है.

सवाल तो हर पल मथते हैं. चुनाव करीब आते हैं तो और भी ज्यादा मथने लगते हैं. हर चुनाव के साथ वह जोश याद आता है जो रथ पर सवार होते वक्त लोगों से मिला था. याद आती है वह ताकत जिसने बिहार में मिले सीखचों ने भी थकाया नहीं था. याद आती है दिसम्बर 92 की वह 6 तारीख जब आँखों के सामने बाबरी मस्जिद ढह रही थी और वह उसे बचा नहीं पा रहे थे. वह बड़ी कोफ़्त का टाइम था. यह सोचकर तो रथ यात्रा भी नहीं निकाली थी. भीड़ से घिरी वह इमारत तेज़ी से ढहती जा रही थी जिसका सहारा पाकर बड़ी आसानी से हुकूमतें खड़ी हो जाती थीं.

बाबरी मस्जिद गिर जाने के बाद वह बुज़ुर्ग बहुत थका हुआ अयोध्या से निकला था. मीर बाक़ी की बनाई मस्जिद गिराने से ज्यादा उसे यह दर्द था कि राम का घर छीनकर निकल रहा है. अब उन्हें नया घर देना आसान नहीं होगा. वह थकान लोगों को बाद में समझ आयी. राम का घर अदालतों के चक्कर में फंस गया था. अदालत ने राम का घर और रथ सवार की तरक्की दोनों पर ताला लगा दिया था.

वक्त के साथ बूढ़ा और बूढ़ा होता रथ सवार उम्र की 92 वीं सीढ़ी पर चढ़ गया. 92 साल के बुज़ुर्ग ने घूमकर 19 92 को देखा. दोनों एक जैसे दिखे. लुटे-पिटे से. तब बाबरी मस्जिद गिर रही थी और अब रथ पर चढ़ने से रोका जा रहा है. रथ तो अब भी नया-नया सा है. अब भी उस पर लगी पताकाएं नयी और चमकीली हैं लेकिन अब हालात बदल गए हैं. अब बिहार में रथ से उतार देने वाला राजा जेल में है और सोमनाथ में रथ पर पाँव छूकर चढ़ाने वाला राजा अब रथ पर खुद काबिज़ हो गया है. रथ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है, वह बुदबुदा रहा है तब 92 था. अब 92 का हूँ.

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