हेमंत शर्मा
(वरिष्ठ पत्रकार/लेखक
राजनाथ शर्मा समाजवाद के अभिलेखागार हैं। अगर आप समाजवाद को जानना समझना चाहते हैं। तो उन्हें खंगालना पड़ेगा। वो वह जिन्दा कौम है जो पांच साल इन्तजार नही करती। पंडित जी जब सत्ता में रहते हैं। तब भी सडक पर संघर्ष के हिमायती है। जिस थाली में खाएं उसमें छेद करने की भी उनमें हिम्मत है। भाषा में भदेस राजनाथ जी के राजनीति में दोस्त कम दुश्मन ज्यादा है। क्योंकि कबीर की तरह लुकाठी हाथ में लेकर सच कहने का उनमें बूता है। इसलिए बारी बारी में सभी समाजवादियों ने सत्ता का स्वाद चखा। पर शर्मा जी साठ बरस से सत्ता के हाशिए पर ही बैठे रहे।
खादी पंडित जी का वस्त्र है। और गांधी विचार। सिविल नाफरमानी के वह योद्धा हैं। ना मानेंगे ना मारेंगे उनके जीवन का सूत्र है। जब भी उनके समाजवादी दोस्त सत्ता में आए और दोस्तों को मुगालता हुआ कि वे सरकार हैं। तो राजनाथ शर्मा उनके खिलाफ भी खड्गहस्त हुए। इसलिए वे हमेशा सड़क पर रहे। यहीं जज्बा उन्हें दुर्लभ और विकट समाजवादी बनाता है।
राजनाथ जी के व्यक्तित्व के कबीरी फूहड़पन से लगता हैं कि उन्हें बनारस में होना चाहिए था। पर आश्चर्य वे हुए बाराबंकी में। जहां नवाबों का असर रहा है। पर उन पर यह असर नही हैं।उन्नीस साल की उम्र में वे जेल इसलिए गए कि डा. लोहिया के नेतृत्व में वे किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम दिलाना चाहते थे।फिर बीस बरस की उम्र में वे जेल इसलिए गए कि अंग्रेजी हटाना चाहते थे। क्योंकि वे चाहते थे कि गॉधी लोहिया की अभिलाषा चले देश में देश की भाषा। तीसरी बार राजनाथ जेल गए ‘सोशलिस्टों ने बांधी गांठ पिछाड़ पावें सौ में साठ’ इस उद्घोष के साथ। जीवन में अब तक राजनाथ जी का दूसरा ठिकाना जेल बन गया था।
राजनाथ शर्मा से अपना सम्बन्ध चालीस बरस पुराना है। मेरे लिए वे समाजवाद के जीवित प्रतीक हैं। इस चरम भौतिकवाद के दौर में भी कोई समाजवाद को इतनी तन्मयता और आस्था से जी सकता है। उनका जीवन इस आश्चर्य की अनूठी इबारत है। बाराबंकी में 60 के दशक से ही वे सामाजिक गैरबराबरी, असमानता और छुआछूत के विरूद्ध सतत संघर्ष के प्रतीक बने हुए हैं। वे सत्ता की दौड़ से हमेशा पिछड़ते रहे हैं। पर सड़क की राजनीति से उन्होंने कभी मुंह नहीं मोड़ा। लखनऊ के उस दौर में पार्क रोड के विधायक निवास में भाई हर्षवर्धन का आवास हमारी अडी होती थी। तब हर्षवर्धन गोरखपुर के फरेंदा से विधायक होते थे। बाद में वे महराजगंज से सांसद बने। हर्षवर्धन जी को विधायक के तौर पर यह फ़्लैट मिला था। पर वे रहते थे अलीगंज के अपने मकान में। इसलिए यह फ़्लैट समाजवादी निठल्लों का अड्डा था। इलाहाबाद के नरेन्द्रगुरू। कानपुर के सत्यनारायण शुक्ला हिन्दू मजदूर किसान पंचायत के भाई गिरीश पाण्डेय डुमरियागंज के मलिक कमाल युसूफ, लखनऊ के पतित पावन अवस्थी और सुरेन्द्र विक्रम बनारस के महेश्वरी सिंह ये सब रोज़ यहॉं इक्कठा होने वाले में थे। राजनाथ जी अक्सर इस अडी का हिस्सा होते थे। यहां सत्ता के खिलाफ खड़े होने और अड़ने के बहाने ढूंढे जाते। नरेंद्र गुरु किस्से सुनाते एक दूसरे को चिकोटी काटती टिप्पणी होती। और हम फिर जनसत्ता के दफ्तर खबर लिखने चले जाते। हमें इस अड़ी से वैचारिक खुराक मिलती थी।
जीवन के तमाम उतार चढ़ाव के बीच राजनाथ जी ने अपनी विचारधारा से कभी समझौता नही किया। उन्हें जानने वाले जानते हैं कि उन्होंने राजनीति का शीर्ष भी देखा और नेपथ्य भी। पर वसूलों से वे कभी भी टस से मस नही हुए। उनके गाँधी जयंती समारोह ट्रस्ट में लाड़ली मोहन निगम, पतित पावन अवस्थी, नरेन्द्र गुरू, हर्षवर्धन आदि सदस्य थे। जो सब अब नहीं रहे। गांधी जयन्ती मनाते मनाते पंडित जी का गांधी समारोह बाराबंकी का सांस्कृतिक उत्सव हो गया। मुझे नहीं पता की गांधी को याद करने के लिए देश में 2 अक्टूबर को हजारों लोग कहीं इकट्ठा होते हों। इस मौके पर होने वाले कवि सम्मेलन में खुमार बाराबंकी से लेकर अदम गोड़वी, चंद्रशेखर तिवारी से लेकर वसीम वरेलवी तक सब आते रहे। अब इस ट्रस्ट का राजनाथ जी के अलावा मैं ही एकमात्र जीवित संस्थापक सदस्य बचा हूँ।
पंडित जी जैसा विकट व्यक्तित्व मैंने नहीं देखा किसी से उन्हें मिलवाना, किसी के पास उन्हें भेजना खतरे से खाली नहीं है। हो सकता है अपनी किसी सिफारिश के लिए वे किसी मंत्री के यहां जाए। और वहां से आपके पास उनके थाने पहुंचने की खबर आए। कई बार ऐसा हुआ किसी मित्र मंत्री से मिलने गए। उसके व्यवहार से चिढ़ पंडित जी सीधे मादर फादर पर। अफरा तफरी कोहराम और फिर उस मंत्री के खिलाफ अभियान। जिस इमारत में आज गांधी जयंती समारोह ट्रस्ट का दफ्तर है। उसके एलाटमेन्ट के लिए वे किसी अफ़सर के यहां गये। दफ्तर में ही उससे लड़ लिए बाद में मैंने तय किया कि इनके किसी काम के लिए मैं ख़ुद इन्हे कहीं नहीं भेजूँगा। काम बनने को कौन कहे सरकारी काम में बाधा पहुँचाने के आरोप में जेल भी जा सकते है।
मेरी किताब के समारोह में शर्मा जी दिल्ली आए। मैंने देखा वे चल फिर नहीं पा रहे थे। कमर झुक गयी। घुटने शरीर का बोझ उठाने को तैयार नहीं। मैंने पंडित जी को इतना लाचार कभी नहीं देखा। वह घुटना जो कभी किसी के आगे झुका नहीं वह झुकने लगा था। मैंने कहा सबसे पहले आपके घुटने को डॉक्टर को दिखाया जाय। पंडित जी ने कहा घुटना बदलवाना पड़ेगा खर्च ज़्यादा है। इसलिए मैंने अभी टाला है।हमने फ़ैसला किया फ़ौरन उन्हें मैक्स में दिखाया जाय वहॉं मौजूद मित्रों ने सहयोग किया और पंडित जी की घुटना बदल गया। चंदा लगा कर उनका आपरेशन हुआ। जब आपरेशन हो रहा था। तो मैं बाहर बेसब्री से इन्तज़ार कर रहा था। आते ही डाक्टर ने ऑपरेशन की सफलता बताने से पहले मुझसे पूछा ये आपके मित्र है। डॉक्टर के पूछने के भाव से मैं समझ गया पंडित जी ऑपरेशन टेबुल पर भी कोई काण्ड कर गए है। मैंने पूछा “क्या हुआ।” डॉ कहने लगे “मैंने टेबुल पर पूछा आपके घुटने काम नहीं कर रहे है।” तो शर्मा जी बोले “डॉ साहब कमर के नीचे कुछ काम नहीं कर रहा है।” डॉक्टर को हंसी आ गयी। उसने कहा “फ़िलहाल मैं तो सिर्फ़ आपका घुटना ही बदल सकता हूँ। ”
पंडित जी समाजवादियों की उस लुप्त होती प्रजाति के अन्तिम खेप से है। जिनका सत्ता से नही हमेशा संघर्ष से नाता रहा है। खरी खरी कहना। दुनिया को ठेंगे पर रखना। अपना नेता भी अगर वसूलों से हटा हो तो उसे गरियाने के लिए हमेशा तत्पर रहना। चंदा लेकर गाँधीवादी समाजवाद की अलख जगाना। और आज के दौर में भारत पाकिस्तान बांग्लादेश का महासंघ बनाओ इस पागलपन का राग अलापना। उनके जीवन का मक़सद है।
राजनाथ शर्मा इस साल आज 76 साल के हो रहे हैं। हालांकि उनकी ऊर्जा और सक्रियता को देखकर लगता है कि उनकी उम्र अभी भी 26 पर टिकी हुई है। बाकी के 60 साल तो उम्र की सर्दियों के वे स्वेटर हैं, जिन्हें वे जब चाहेंगे, उतार फेंकेंगे।
पिछले साल जब वे 75 के हुए,तो उनके जन्मदिन को धूमधाम से मनाने की योजना थी। मगर लोकसभा चुनावों की आपाधापी में यह हो न सका। इसका दोष मेरे हिस्से भी है। इसलिए इस बार हम 76 को 75 की उत्सवप्रियता की तरह मनाना चाहते थे सो कोरोना का क़हर आ गया।
लोहिया के जीवन के अन्तिम वर्षो में पंडित जी उनके निकट सहयोगी रहे। उनके पांव में हुए अपरस में चमेली का तेल लगाना हो या लोहिया के दौरो का प्रबंधन राजनाथ हमेशा साए की तरह उनके साथ रहे। इमरजेंसी में जब लखनऊ के एक अदालत में उन्हें तबकि सरकार से माफी मांग जेल से छूटने का प्रस्ताव दिया तो राजनाथ जी ने अदालत से कहा क्यों जायका खराब कर रहे हैं। जबान के जायके के लिए तो जेल में हूं। मैंने इन्दिरा गांधी को उनकी करतूतों के लिए अपशब्द कहे। कोई रेल की पटरी तो उखाड़ी नहीं थी। आप चाहते हैं कि अपनी कहे को वापस ले मैं अपनी जुबान का वह जायका खराब करूं। यह नहीं होगा।
सत्य के प्रति उनका आग्रह अद्भुत है। आपको कभी भी यहखबर मिल सकती है कि राजनाथ शर्मा देश और समाज सेजुड़े किसी मुद्दे पर भूख हड़ताल पर बैठ गए हैं। उनको जानने वाले लोगों को ऐसी खबरें हैरान नही करती हैं। ये उनका स्वाभाविक संकल्प है। प्रशासन उनके आंदोलन को खत्म करने के लिए कितना भी जोर लगा ले, मगर लक्ष्य की प्राप्ति बगैर वे पीछे नहीं हटते। यही उनकी ताकत है।
पंडित जी की सादगी बेमिसाल है। मुझे एक घटना याद आ रही है। घटना जॉर्ज फर्नांडीज से जुड़ी है राजनाथ जी जॉर्ज के बेहद मुँह लगे मित्र थे। मैं तब लखनऊ के डालीबाग में रहता था। शर्मा जी उनके साथ ही अक्सर मेरे डालीबाग वाले घर आते थे। मैं अकेला रहता था, इसलिए पूरा घर जार्ज साहब के लिए भेंट मुलाक़ात के खातिर खुला रहता था। उन दिनों मेरे पास मारूती 800 थी।
एक सुबह राजनाथ जी मेरे पास आए और कहने लगे कि हेमंत, चलो स्टेशन, जॉर्ज आने वाले हैं। हम जॉर्ज को लेने स्टेशन गए। जॉर्ज लखनऊ में जब तक रहे। हम, जॉर्ज और राजनाथ जी उसी मारुति से घूमते रहे। उस रोज का एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है। राजनाथ जी ने जार्ज से एक एडमिशन की सिफारिश की। मामला फैज़ाबाद के मशहूर कनोसा कॉन्वेंट में एक बच्ची के एडमिशन का था। राजनाथ जी के मित्र की बच्ची थी। मित्र को राजनाथ जी घुग्घू बाबू कहकर बुलाते थे। घुग्घू यानी रघुनाथ प्रसाद जायसवाल समाजवादी अनंन्त राम जायसवाल के भतीजे थे। राजनाथ जी ने कहा घुग्घू की बेटी का एडमिशन करवाना है। आप एक चिट्ठी लिख दें।
जॉर्ज ने पूछा, “राजनाथ! मैं कॉन्वेंट स्कूल के उस पादरी को नही जानता। मैं कैसे चिट्ठी लिखूं?”
“अरे आप भले ऊ पादरी का न जानत हो पर ऊ पादरीआपका जानत है।” राजनाथ जी अड़े हुए थे।
जॉर्ज ने अगला सवाल दागा, “अच्छा उस पादरी का नामक्या है?” “अब नाम हम का जानी। आप पादरी। ऊ पादरी। एक पादरी दूसरे पादरी को चिट्ठी लिखेगा। नाम से क्या मतलब।” राजनाथ जी का यह तर्क अजीबोगरीब था। “अच्छा उस लड़की का नाम क्या है?” थक हारकर जॉर्ज साहब ने चिट्ठी लिखने से पहले आखिरी सवाल पूछा। “लड़की का नाम तो मुझे मालूम नहीं लिख दीजिए घुग्घु बाबू की बेटी”। राजनाथ बोले। चश्में के भीतर से झांकती जार्ज की आंखें राजनाथ जी को अचरज से देख रही थी। उन्होंने फिर अपने कहे पर जोर दिया “लड़की का नाम तो नाही पता। आप घुग्घू बाबू की लड़की लिख दो। ऐसे काम हो जाई।” राजनाथ जी का ये जवाब सुनकर जॉर्ज मुस्कुराए और उन्होंने फिर चिट्ठी भी लिखी। राजनाथ शर्मा के भीतर की यह सादगी आज भी कायम है। आज भी वे दूसरों की मदद के लिए जी जान से निकल पड़ते हैं। ना दिन की परवाह रहती है ना रात की फिक्र। उनका जीवन सादगी, संघर्षों और सिद्धांतों की मिसाल है। वे ऐसे ही ऊर्जावान और संघर्षवान तरीके से जीवन के सौ शरद जीएं। बसंत नहीं कह रहा। क्योंकि बसंत प्रकृति के श्रृंगार का पर्व है। जबकि शरद उसके संघर्ष का। तो पंडित जी सौ बरस जीए सभी अंगो के सक्रिय संचालन के साथ।