तहलका टुडे टीम
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते हुए ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं-
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीने-पनाह हुसैन
सरदाद न दाद दस्त, दर दस्ते-यज़ीद
हक़्क़ा के बिना, लाइलाह अस्त हुसैन…
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को अजमेर शरीफ दरगाह के लिए चादर भेजी.पीएम मोदी ने एक्स पर लिखा कि मैंने मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की. मैं इस दौरान चादर पेश की, जिसे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के उर्स के दौरान अजमेर शरीफ दरगाह पर चढ़ाया जाएगा.
पीएम मोदी की मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात के दौरान सऊदी अरब से वापस लौटी अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री स्मृति ईरानी और देश के जाने माने सोशल रिफार्मर शिया क्लेरिक मौलाना कल्बे रुशैद रिज़वी भी मौजूद रहीं. पीएम मोदी ने जो चादर भेजी है उसे 13 जनवरी को चढ़ाई जाएगी. पीएम कई सालों से अजमेर शरीफ दरगाह पर चादर चढ़ाने के लिए भेजते रहे हैं.
दिल्ली हज कमेटी की प्रमुख कौसर जहां भी इस दौरान मौजूद थीं. इस वर्ष अजमेर शरीफ के दरगाह पर 812वां उर्स मनाया जा रहा है. उर्स के दौरान ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के दरबार पर काफी लोग पहुंचते हैं.
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अब तक 9 बार अजमेर शरीफ दरगाह को चादर भेंट की है. इस साल यहां 13 से 21 जनवरी तक उर्स का आयोजन हो रहा है.
पूर्व पीएम मनमोहन सिंह, राजीव गांधी, पीवी नरसिम्हा राव, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भी चादर भेजी जाती रही हैं. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सहित कई मुख्यमंत्री,मंत्री, राजनेता, बिजनेसमैन के द्वारा भी चादर चढ़ाई जाती है. पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जियाउल हक, जनरल परवेज़ मुशर्रफ, आसिफ अली जरदारी, बेनजीर भुट्टो भी यहां चादर पेश कर चुकी हैं.
इसके अलावा बांग्लादेश के पूर्व राष्ट्रपति एचएम इरशाद, शेख हसीना, खालिदा जिया की चादर भी चढ़ाई जा चुकी हैं. पिछले उर्स में पहली बार अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी की ओर से उर्स के मौके पर चादर पेश की गई थी. हर साल करीब 500 से अधिक जायरीन पाकिस्तान, बांगलादेश से आते हैं. पिछले दो साल से कोरोना के कारण अनुमति नहीं दी गई थी.
हजरत मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी जिन्हे ख्वाजा गरीब नवाज के नाम से भी जाना जाता है। ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती इंसानियत के लिए काम करनेवाले महान सूफी संत रहे है। जिन्होने इंसानियत के सुखते दरख्त को फिर से हरा भरा किया। जो गरीबो के मसीहा थे। खुद भूखे रहकर दुसरो को खाना खिलाते थे। जो दीन दुखियो के दुखो को दूर करते थे। जो पाप को पुण्य में बदल देते थे। वो अल्लाह के सच्चे बंदे थे। अल्लाह ने उन्हे उन्हे रूहानी व गअबी ताकते बख्शी थी। जिनके मानने वालो की एक विशाल संख्या जिनको इस्लाम धर्म के लोग ही नही हिन्दू सिख आदि अन्य सभी धर्मो के लोग मानते है। जिनके मानने वालो में राजा से लेकर रंक नेता से लेकर अभिनेता तक है जो ख्वाजा गरीब नवाज की जियारत के लिए हमेशा लयलित रहते है। जिनकी दरगाह आज भी हिन्दुस्तान की सरजमी को रोशन कर रही है।
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती गरीब नवाज का जन्म कुछ इतिहासकार और विद्वानो का मत है कि ख्वाजा का जन्म संजर में हुआ था कुछ मानते है कि सिस्तान ईरान में हुआ था। कुछ मानते है की संजार जो मोसुल के पास है। कुछ विद्वान मानते है की ख्वाजा का जन्म संजार जो इस्फिहान ईरान के पास है वहा हुआ था। लेकिन इन सभी मतो में ज्यादातर बल इस मत को मिलता है कि ख्वाजा का जन्म या पैदाइश की जगह इस्फ़िहान है। बाद में ख्वाजा की परवरिश संजार में हुई जिसे संजर के नाम से भी जाना जाता था। उस समय इस्फ़िहान के एक मौहल्ले का नाम संजर था। उस मौहल्ले में ख्वाजा के माता पिता रहते थे।
ख्वाजा गरीब नवाज मोईनुद्दीन चिश्ती का बचपन ऐसा था कि
ख्वाजा की पैदाइश के बाद मां बाप ने बच्चे का नाम मोईनुद्दीन हसन रखा प्यार से मां बाप ख्वाजा को हसन कहकर ही पुकार ते थे। ख्वाजा बचपन में और बच्चो की तरह नही थे। बचपन में ही ख्वाजा की बातो को देखकर ऐसा लगता था कि यह बच्चा कोई आम बच्चा नही है। बचपन से ही खवाजा दूसरो के लिए फिक्रमंद रहते थे। ख्वाजा के दूध पिने की उम्र में ही जब कोई औरत अपने दूध पीते बच्चे के साथ ख्वाजा के घर आती और उस औरत का बच्चा दूध पीने के लिए रोता तो ख्वाजा अपनी मां को इशारा करते। जिसका मतलब होता कि वे अपना दूध इस बच्चे को पिला दे। ख्वाजा की मां अपने बच्चे के इशारे को समझ जाती और अपना दूध उस बच्चे को पिला देती। जब वह बच्चा ख्वाजा की मां का दूध पीता तो ख्वाजा बहुत खुश होते थे। ख्वाजा कै इतनी खुशी होती की ख्वाजा हंसने लगते थे। जब ख्वाजा की उम्र तीन चार साल की हुई तो ख्वाजा अपनी उम्र के गरीब बच्चो को अपने घर बुलाते और उनको खाना खिलाते थे। एक बार की बात है ख्वाजा ईद के मौके पर अच्छा लिबास पहने ईदगाह में नमाज पढने जा रहे थे। उस वक्त लगभग ख्वाजा की उम्र पांच सात साल रही होगी। रास्ते में अचानक ख्वाजा की नजर एक लडके पर पडी। वह लडका आंखो से अंधा था तथा फटे पुराने कपडे पहने हुए था। ख्वाजा ने जब उस लडके को देखा तो बहुत दुख हुआ। ख्वाजा ने अपने कपडे उसी समय उतारकर उस लडके को पहना दिए और उसे अपने साथ ईदगाह में ले गए। ख्वाजा का बचपन बहुत ही संजीदगी से गुजरा था। ख्वाजा और बच्चो की तरह खेल कूद नही करते थे। ख्वाजा की तालीम ख्वाजा के वालिद एक बडे आलिम थे। ख्वाजा की शुरूआती तालिम घर ही हुई। लगभग नौ साल की उम्र में ही ख्वाजा ने कुरआन हिफ्ज कर लिया था। इसके बाद संजर के एक मदरसे में आगे की तालीम के लिए ख्वाजा का दाखिला हुआ। वहा ख्वाजा ने आगे की तालीम हासिल की। थोडे ही समय में ख्वाजा ने तालीम के मामले में एक अच्छा मुकाम हासिल कर लिया था। ख्वाजा की जवानी की जिन्दगी अभी ख्वाजा की उम्र लगभग पन्द्रह साल की ही हुई थी अभी ख्वाजा ने जवानी की दहलीज पर कदम ही रखा था कि ख्वाजा के वालिद (पिता) का स्वर्गवास हो गया। ख्वाजा के वालिद की मृत्य 1149 के लगभग हई थी। वालिद की मृत्यु के बाद ख्वाजा गरीब नवाज के हिस्से में बाप की जायदाद में से एक बाग और एक पनचक्की आयी थी। बाग और पनचक्की की आमदनी से ही ख्वाजा अपनी गुजर बसरर करते थे। ख्वाजा को शुरू से ही फकीरो सूफियो और दरवेशो से बहुत लगाव था। वह अधिकतर इसी तब्के के लोगो में समय गुजारते थे। एक समय की बात है खवाजा अपने बाग को पानी दे रहे थे। एक सूफी जिनका नाम इब्राहीम क़दोज था उधर से गुजर रहे थे। अचानक उनकी नजर बाग में पानी देते उस नौजवान पर पडी। नौजवान पर नजर पडते है उन्हे एक ऐसी कशीश हुई की वो नौजवान से मिलने बाग के अंदर चले गए। ख्वाजा ने एक सूफी संत को बाग में आया देख उनकी बहुत आवभगत की। इब्राहिम क़ंदोजी ने ख्वाजा को देखकर पहचान लिया की यह कोई मामूली इंसान नही है। आगे चलकर यह गरीबो का मसीहा बनेगा। लोगो की रूहानी प्यास बुझाएगा। लेकिन आज यह लडका अपनी रूहानी ताकत से बेखबर है। फिर इब्राहिम क़दोजी ने अपनी झोली से एक खल का टुकडा निकाला ओर उस टुकडे को ख्वाजा को खाने के लिए दिया। खल के टुकडे को खाते ही ख्वाजा ने अपने अंदर एक अजब सी तब्दीली महसूस की। उनकी आंखो से परदे उठते चले गए। दुनिया की मौहब्बत से दिल एक दम खाली हो गया। हजरत इब्राहिम क़न्दोजी तो वहा से चले गए। वही से ख्वाजा ने अपनी जिन्दगी का नया रास्ता अपनाया। जो रास्ता दुनिया की मौहब्बत से बिलकुल अलग था। वो रास्ता अल्लाह की याद से भरा था वो रास्ता दीन दुखियो की मदद से भरा था। वो रास्ता एक रूहानी रास्ता था। वो रास्ता अल्लाह और महबूब के बीच की दूरी को कम करता था। इसके बाद फिर क्या था। ख्वाजा ने अपना बाग और चक्की बेचकर उससे प्राप्त सारे धन को गरीबो में बाट दिया और खुद हक की तलाश में उस रूहानी रास्ते पर निकल पडे।
रूहानी रास्ते पर निकलने के बाद ख्वाजा ने फिर पिछे मुडकर नही देखा। ख्वाजा इल्म व तालीम हासिल करते हुए समरकंद, बुखारा, बगदाद, इराक, अरब, शाम, आदि का सफर तय करते हुए 1157 में ख्वाजा हारून पहुचें। जहा ख्वाजा ने उसमान हारूनी से बेअत व खिलाफत पाई।
हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेर में पहली बार 1190 में आये थे। इस समय अजमेर पर राजा पृथ्वीराज चौहान का शासन था। जब हजरत गरीब नवाज अपने साथियो के साथ अजमेर पहुंचे तो ख्वाजा ने अजमेर शहर से बाहर एक जगह पेडो के साए के नीचे अपना ठिकाना बनाया। लेकिन राजा पृथ्वीराज के सैनिको ने ख्वाजा को वहा ठहरने नही दिया उन्होने ख्वाजा से कहा आप यहा नही बैठ सकते है। यह स्थान राजा के ऊंटो के बैठने का है। ख्वाजा गरीब नवाज को यह बात बुरी लगी। ख्वाजा ने कहा- अच्छा ऊंट बैठते है तो बैठे।
यह कहकर ख्वाजा वहा से उठकर अपने साथियो के साथ चले गए। यहा से जाकर ख्वाजा ने अनासागर के किनारे अपना ठिकाना किया। यह जगह आज भी ख्वाजा का चिल्ला के नाम से जानी जाती है। ऊंट रोज की तरह अपने स्थान पर आकर बैठे। लेकिन वह ऊंट ऐसे बैठे की उठाए से भी नही उठे । ऊंटो को ऊठाने का काफी प्रयत्न किया गया परंतु ऊंट वहा से उठकर न दिए। राजा के सभी नौकर परेशान हो गए। नौकरो ने इस सारी घटना की खबर राजा पृथ्वीराज को दी। राजा पृथ्वीराज यह बात सुनकर खुद हैरत में पड गए। उन्होने नौकरो को आदेश दिया कि जाओ उस फकीर से माफी मांगो। नौकर ख्वाजा के पास गए और उनसे माफी मागने लगे। ख्वाजा ने नौकरो को माफ कर दिया और कहा अच्छा जाओ ऊंट खडे हो गए है। नौकर खुशी खुशी ऊटो के पास गए। और उनकी खुशी हैरत में बदल गई जब उन्होने जाकर देखा की ऊंट खडे हुए थे। इसके बाद भी ख्वाजा की वहा अनेक करामाते हुई।
और धीरे धीरे अजमेर और आस पास के क्षेत्र में ख्वाजा की प्रसिद्धि चारो ओर फैल गई। ख्वाजा से प्रभावित होकर साधूराम और अजयपाल ने इस्लाम कबूल कर लिया यह दोनो व्यक्ति अपने समाज में अहम स्थान रखते थे। अब तक ख्वाजा अनासागर के किनारे ही ठहरे हुए थे। साधूराम और अजयपाल ने ख्वाजा गरीब नवाज से विनती की– कि आपने यहा शहर शहर के बाहर जंगल में ठिकाना बनाया हुआ है। हम आपसे विनती करते है कि आप आबादी में ठहरे। ताकि आपके कदमो की बरकत से लोग फायदा उठा सके। ख्वाजा ने उन दोनो की की बात मान ली। ख्वाजा ने अपने साथी यादगार मुहम्मद को शहर में ठहरने हेतु उपयुक्त स्थान देखने के लिए भेजा। यादगार मुहम्मद ने स्थान देखकर ख्वाजा ख्वाजा को सूचित किया। फिर ख्वाजा अपने साथियो के साथ उस स्थान पर अपना ठिकाना बनाया। यहा ख्वाजा ने जमाअत खाना, इबादत खाना, मकतब बनवाया। यही वो मुकद्दस जगह है जहां आज भी खवाजा की आलिशान दरगाह है।
कहा जाता है कि 21 मई 1230 को पीर के दिन (6 रजब 627 हिजरी) को इशा की नमाज के बाद ख्वाजा अपने हुजरे का दरवाजा बन्द किया। किसी को भी ख्वाजा के हुजरे में दाखिल होने की इजाजत नही थी। हुजरे के बाहर ख्वाजा के सेवक हाजिर थे। रात भर उनके कानो में तिलावते कुरान की आवाजे आती रही। रात के आखीरी हिस्से में वह आवाज बंद हो गई। सुबह फजर की नमाज का वक्त हुआ लेकिन ख्वाजा बाहर नही आए। सेवको को फिक्र हुई उन्हने ख्वाजा को अनेक आवाजे लगायी व दस्तक दी। काफी देर तक कोई प्रतिक्रिया ना मिलने पर हुजरे के दरवाजे को तोडा गया। दरवाजा तोडकर जब सेवक अंदर गए तो उन्होने देखा की ख्वाजा इस दुनिया से रूखसत हो चुके थे। तथा उनके माथे पर कुदरत के यह शब्द लिखे हुए थे– हाजा हबीबुल्लाह मा-त फ़िहुब्बुल्लाह° । ख्वाजा साहब की मृत्यु अजमेर शरीफ के लिए एक दुखद घटना थी सारा शहर ख्वाजा के गम में आसू बहा रहा था। ख्वाजा के जनाने में काफी भीड थी। ख्वाजा साहब की जनाजे की नमाज ख्वाजा के बेटे ख्वाजा फखरूद्दीन ने पढाई। और ख्वाजा साहब को उनके हुजरे में ही दफन किया गया। और वहा ख्वाजा का मजार बनाया गया जिसकी जियारत करने के लिए आज भी ख्वाजा के चाहने वाले दुनिया भर से यहा आते है।