ईरान: इकलौता मुल्क जो इंसानियत की बका के लिए कर रहा है संघर्ष
तहलका टुडे इंटरनेशनल डेस्क
इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान ने अपने आप को आत्मनिर्भर और मजबूती से खड़ा किया है, भले ही उसे अनेकों चुनौतियों का सामना करना पड़ा हो। सबसे पहले 1980-88 के दौरान इराक-ईरान युद्ध के समय, जहां पश्चिमी देशों ने इराक का साथ दिया, ईरान ने आठ लाख से ज्यादा शहीदों के बलिदान के बावजूद अपने सिद्धांतों और स्वतंत्रता को बनाए रखा।
एडिटर सैयद रिज़वान मुस्तफा के इस लेख में, हम ईरान की अद्वितीय रूहानी ताकत, उसकी आत्मनिर्भरता, और इंसानियत बचाने की उसकी कोशिशों को समझेंगे।
इस्लामी क्रांति और रूहानी ताकत की उत्पत्ति
1979 में जब ईरान में इस्लामी क्रांति हुई, तो यह केवल राजनीतिक बदलाव नहीं था, बल्कि यह एक रूहानी और सामाजिक बदलाव भी था। इस क्रांति ने इस्लामिक सिद्धांतों के आधार पर एक मजबूत और आत्मनिर्भर ईरान की नींव रखी। क्रांति के नेता आयतुल्लाह खुमैनी ने इसे एक ऐसी ताकत दी जो केवल सैन्य या आर्थिक नहीं थी, बल्कि उसकी जड़ें आध्यात्मिकता और ईश्वर में विश्वास में थीं।ईरान के लोग अपने विश्वास और संस्कृति में दृढ़ रहे, और यह रूहानी ताकत उन्हें विश्व शक्तियों के दबाव में भी मजबूती से खड़े रहने की क्षमता देती है। ईरानियों का मानना है कि उनकी लड़ाई केवल जमीन या संसाधनों के लिए नहीं है, बल्कि यह इंसानियत की बका के लिए है। इस विचारधारा से ही उन्हें इमाम-ए-ज़माना (मेहदी) के आने की तैयारी का भाव मिलता है, जो उन्हें एक गहरे धार्मिक मकसद से जोड़ता है।
इराक-ईरान युद्ध: पश्चिमी देशों के खिलाफ संघर्ष
1980 में इराक ने जब ईरान पर हमला किया, तो यह केवल दो देशों के बीच की लड़ाई नहीं थी। पश्चिमी देशों ने खुलकर जालिम सद्दाम हुसैन के इराक का समर्थन किया, और इसे ईरान की इस्लामी क्रांति को कमजोर करने का प्रयास माना गया। ईरान को आर्थिक प्रतिबंधों और सैन्य दबावों का सामना करना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद, ईरान ने अपनी जमीन नहीं छोड़ी और लगातार 8 साल तक इस संघर्ष में डटा रहा।
इराक के पास अत्याधुनिक हथियार और पश्चिमी सहायता थी, जबकि ईरान का मुख्य आधार उसका दृढ़ संकल्प और शहीदों की कुर्बानी थी। 8 लाख से अधिक ईरानी शहीद हुए, लेकिन फिर भी ईरान ने आत्मसमर्पण नहीं किया। इस संघर्ष ने दुनिया को यह दिखा दिया कि ईरान की ताकत केवल भौतिक संसाधनों पर आधारित नहीं थी, बल्कि उसकी जड़ें आध्यात्मिकता और उसके इस्लामी क्रांति के सिद्धांतों में थीं।
प्रतिबंधों के बावजूद आत्मनिर्भरता
युद्ध के बाद भी, ईरान को पश्चिमी देशों से लगातार प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य प्रतिबंधों के बावजूद, ईरान ने अपनी आत्मनिर्भरता को बढ़ाया और विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति की। कृषि, आईटी, मेडिकल टूरिज्म और परमाणु तकनीक में उसने ऐसी उपलब्धियां हासिल कीं, जिन्होंने दुनिया को चौंका दिया।
ईरान के पास अब यूरेनियम का भंडार है, लेकिन उसका उद्देश्य तबाही नहीं, बल्कि इंसानियत की बका है। ईरान ने यह स्पष्ट किया है कि उसकी तकनीक का उपयोग केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए किया जाएगा, न कि युद्ध के लिए। इसके अलावा, वह मेडिकल रिसर्च और एनर्जी प्रोजेक्ट्स में भी अग्रणी है, जो इस बात का प्रतीक है कि प्रतिबंधों के बावजूद ईरान ने अपने वैज्ञानिक और तकनीकी विकास को नहीं रोका।
अमेरिका और इज़राइल का ईरान पर दबाव
ईरान की सफलता और आत्मनिर्भरता ने अमेरिका और इज़राइल को हमेशा से असहज किया है। ये देश बार-बार ईरान की तकनीकी और सैन्य क्षमताओं पर हमला करने की धमकी देते रहे हैं। इज़राइल, जो खुद मध्य पूर्व में सबसे बड़ी परमाणु शक्ति है, ईरान की परमाणु तकनीक को खतरे के रूप में देखता है। वहीं, अमेरिका हमेशा से ही ईरान के साथ एक कठोर रुख अपनाता रहा है, खासकर जब से ईरान ने इस्लामी क्रांति की राह पकड़ी है।
लेकिन ईरान की स्थिति इस बात की ओर इशारा करती है कि वह अमेरिका और इज़राइल के हमलों के बावजूद कमजोर नहीं होगा। ईरान की तुलना दीवार से की जा सकती है, जिस पर अगर कोई अंडा फेंके, तो अंडा फुट जाएगा, लेकिन दीवार पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह तुलना साफ करती है कि अमेरिका और इज़राइल के तमाम दबाव और हमलों के बावजूद, ईरान एक अडिग दीवार की तरह खड़ा है।
दुनिया के दूसरे मुल्कों से हमदर्दी
ईरान की इस्लामी क्रांति और उसकी आत्मनिर्भरता को दुनिया के कई देशों ने सराहा है। रूस, चीन और भारत जैसे देशों ने खुलकर ईरान के साथ हमदर्दी दिखाई है। इन देशों ने ईरान के साथ आर्थिक और सैन्य संबंध बनाए रखे हैं, और ईरान के साथ मिलकर कई परियोजनाओं में भागीदारी की है। रूस और चीन जैसे देश जहां अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ईरान का समर्थन कर रहे हैं, वहीं भारत भी ईरान के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए हुए है, खासकर ऊर्जा और व्यापार के क्षेत्र में।
इंसानियत बचाने के लिए संघर्ष
ईरान का मानना है कि उसका संघर्ष केवल अपने देश की सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक संघर्ष है, जो इंसानियत को बचाने के लिए लड़ा जा रहा है। चाहे यमन हो, सीरिया हो या इराक, ईरान ने हर जगह अपने धार्मिक और नैतिक सिद्धांतों के आधार पर समर्थन दिया है। ईरान ने खुद को केवल एक देश नहीं, बल्कि एक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत किया है, जो दुनिया में इंसानियत और न्याय के लिए खड़ा है।
ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद से लेकर आज तक का सफर एक संघर्ष की कहानी है। यह संघर्ष केवल भौतिक संसाधनों का नहीं है, बल्कि यह एक रूहानी और नैतिक संघर्ष है, जो इंसानियत की बका के लिए लड़ा जा रहा है। ईरान ने आठ लाख शहीदों की कुर्बानी दी, प्रतिबंधों का सामना किया, और आज भी आत्मनिर्भरता की मिसाल पेश कर रहा है। अमेरिका और इज़राइल के हमलों और दबावों के बावजूद, ईरान की स्थिति एक अडिग दीवार की तरह है, जो इंसानियत के लिए संघर्ष कर रहा है।
दुनिया को आज शांति और न्याय की जरूरत है, और ईरान ने इस संघर्ष में अपनी अनूठी भूमिका निभाई है। यह साफ है कि ईरान का मकसद केवल अपनी सरहदों की रक्षा करना नहीं है, बल्कि दुनिया में इंसानियत और न्याय को स्थापित करना है।