✍️ सैयद नजर सिबतैन नगरामी
आज से तक़रीबन एक हज़ार साल पहले 1100 AD में मज़हबे -इस्लाम साइंस के गोल्डन दौर से गुज़र रहा था।
ये वो दौर था जब बग़दाद साइंस और जदीद टेक्नोलॉजी का मरकज़ हुआ करता था। दुनिया भर के तालिब-ए-इल्म साइंस की जदीद तालीम के लिए बगदाद का रुख करते थे। उस दौर में यूरोप तालीम के ऐतबार से तारीकियों में डूबा हुआ था। साइंस मुसलमान की पहचान माना जाता था। ये वो दौर था जब दुनियावी तालीम के हर शोबे Algebra, Algorithm, Agriculture, Medicine, Navigation , Astronomy , Physics, Cosmology, Psychology वग़ैरा वग़ैरा में मुसलमान एक पहचान माना जाता था ।
फिर ये हुआ कि ये सब अचानक रुक गया। इल्म , फ़लसफ़ा , ईजाद और दानाई का ये दौर मुसलमानों के बीच से अचानक ग़ायब होने लगा।
वजह ?
वजह बना एक फ़तवा जो अपने वक़्त के इस्लामिक विद्वान कहे जाने वाले इमाम अल ग़ज़ाली ( 1058 – 1111 ) ने अपनी मशहूर किताब तहाफुत अल फ़लसफ़ा (تهافت الفلاسفة) के ज़रिये दिया..
किताब की इस तफ़्सीर के मुताबिक़ नम्बर्स (संख्याओं) के साथ खेलना शैतान का काम है इसलिए Mathematical calculation से मुसलमानों को दूर रहना चाहिए।
इमाम अल ग़ज़ाली ईरान के खोर्सान सूबे के तबारन में पैदा हुए। उस दौर के मुसलमानों के बीच उनका इतना रुतबा था कि लोग उन्हें मुजद्दिद और हुज्जत -उल – इस्लाम कहते थे । ज़ाहिर है उस वक़्त के मुसलमानों ने इस फ़तवे के ख़िलाफ़ जाना इस्लाम के ख़िलाफ़ जाना तसव्वुर किया। नतीजा ये हुआ कि मुसलमानों ने उन सब साइंसी ईजादों और रिसर्च से मुंह फेर लिया जिनमें किसी भी तरह की कैलकुलेशन होती थी..और हम जानते हैं कि बिना मैथमेटिकल कैलकुलेशन के आप किसी भी तरह की जदीद टेक्नोलॉजी में कामयाब हो ही नहीं सकते। यानि लगभग हर तरह के साइंस से मुसलमानों ने मुंह फेर लिया..
अमेरिका के नील डी ग्रास टाइसन ( Neil deGrasse Tyson ) जिन्हें मौजूदा दौर का आइंस्टीन माना जाता है ,के मुताबिक़ इमाम ग़ज़ाली की यही बुनियादी ग़लती साबित हुई और मुसलमान हर तरह के इल्म से पिछड़ता चला गया।
इमाम ग़ज़ाली के इस फतवे के बाद सब कुछ जैसे थम सा गया। किसी ने मानो उसे अपाहिज बना दिया। इनके इस ग़लत इंटरप्रिटेशन की वजह से इस्लाम आज तक नहीं उभर पाया है। उस नुकसान की भरपाई नहीं कर पाया।
दूसरा बड़ा झटका तब लगा जब प्रिंटिंग प्रेस की ईजाद हुई और जिसको हराम क़रार दिया गया था।..
तुर्की के ऑटोमन ख़िलाफ़त ( 1299 – 1922 ) के दौर में जब जर्मनी में 1455 में प्रिंटिंग प्रैस की ईजाद हुई तो उस वक़्त के सुंल्तान सलीम (अव्वल) ने ख़िलाफ़त के शैख़ुल -हदीस के कहने पर किसी भी तरह की किताब के छापने पर पाबन्दी लगा दी। और एलान किया कि जो कोई भी प्रिंटिंग प्रेस का इस्तेमाल करता पाया गया उसको मौत की सजा दी जाएगी। ये 1515 की बात है। उस वक़्त ख़िलाफ़त तुर्की से निकलकर साउथ ईस्ट यूरोप , सेंट्रल यूरोप के कुछ हिस्सों , वेस्टर्न एशिया और नार्थ अफ़्रीक़ा तक फैली हुई थी। इस फ़तवे का बहुत दूर तक असर हुआ और उस वक़्त की मुसलमानों की तरक़्क़ी की रफ्तार यकायक थम गई।
दूसरी अक़वाम ने उसे हाथों हाथ लिया और साइंस पर मबनी किताबें , रिसर्च पेपर्स , न्यूज़ पेपर्स , इन्वेंशन आर्टिकल्स छापे जाने लगे , दूर दूर तक इल्म फैलने लगा और दूसरी क़ौमें इससे फायदे उठाने लगीं। प्रिंटिंग प्रेस पर मुसलमानों का ये खुदसाख़्ता बैन तक़रीबन 1784 में जाकर हटाया गया लेकिन फिर भी मुस्लिम दुनिया में पहली किताब 1817 में जाकर छापी जा सकी।
यानि प्रिंटिंग प्रैस की ईजाद से तक़रीबन 362 सालों की तवील मुद्दत के बाद। इन 362 सालों में पूरी दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई थी। नई -नई ईजादों और इल्म की रौशनी जो प्रिंटिंग प्रैस के ज़रिये फैली थी मुसलमान उस रौशनी से महरूम ही रहा।
ये थे वो दो फ़तवे जिनकी वजह से मुसलमान आज वहां नहीं है जहाँ उसे होना चाहिए था।
आज अगर हम इन फ़तवों के बारे में सोचते हैं तो अजीब लगता है कि आखिर इसमें ग़ैर इस्लामी और हराम क़रार दिए जाने जैसा क्या था !
लेकिन आज भी हम ऐसे ही हैं जैसे उस ज़माने में थे। आज भी अजीब -अजीब फ़तवे दिए जाते हैं और हम अपनी ज़बान सिले रहते हैं, बल्कि कहा जाये कि इन फ़तवों का खैर -मक़दम करते हैं।
और हमारी इस फितरत की वजह साफ़ है कि हम मज़हबे -इस्लाम को आज भी ठीक तरह से नहीं समझ पाए हैं। जो हमारे उलेमा ऐ दीन ने कह दिया वो हमारे लिए पत्थर की लकीर की तरह है। हम ये मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि उलेमा ऐ दीन भी ग़लती कर सकते हैं।
बहरहाल अजीब फ़तवों की फेहरिस्त लम्बी है। कुछ और नमूने पेश हैं –
जब हवाई जहाज़ की ईजाद हुई तो बर्रे सग़ीर से फ़तवा जारी किया गया कि जहाज़ में सफ़र करना हराम है। फ़तवे के मुताबिक़ इतनी ऊँचाई पर इंसान का सफ़र करना खुदा की कुदरत को ललकारने जैसा है।
इसी तरह जब रेडियो की ईजाद हुई तो फतवा दिया गया कि ये शैतान की आवाज़ है।
कैमरा और टीवी पर तो आज तक फ़तवा जारी है।
इसी तरह आज कोई ब्लड ट्रांसफ्यूजन को हराम क़रार दे रहा है और कोई हेयर ट्रांसप्लांट को। कोई जेनेटिक इंजीनियरिंग को हराम क़रार दे रहा है।
पूरी दुनिया के साइंसदाँ यूनिवर्स के एक्सप्लोरेशन की खोज के सुनहरे दौर तक पहुँच चुके हैं। ग्रैविटेशनल फाॅर्स वेव्स और Higgs पार्टिकल्स की बात हो रही है। लोग एक्सप्लोर कर रहे है ,यूनिवर्स के क्वांटम स्टेट के बारे में पूछ रहे हैं।
Cosmology की infinity के बारे में सवाल उठाये जा रहे हैं। मार्स के सरफेस पर रिसर्च हो रहे हैं। मेडिकल साइंस भी जेनेटिक इंजिनीरिंग तक जा पहुंचा है जिससे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी बस ख़त्म होने को है और ये सिर्फ एक छोटी सी झलक है कि दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है।
और हम ?
हमारी समझ और मैच्योरिटी का लेवल ये है कि हम अभी तक इस बात से खुश हो जाते हैं कि एक खीरे में ” अल्लाह ” या ” मुहम्मद ” लिखा पाया गया है। हमारी समझ का लेवल ये है कि किसी क़ुरबानी के बकरे पर ” मुहम्मद ” लिखा हुआ पाया गया है। ये आखिर है क्या और हम इससे दीन की क्या ख़िदमत कर रहे हैं ?
हम साबित क्या करना चाहते हैं ?
इसी पसमंज़र में आइये देखते हैं कि पिछले सौ सालों में हमने दुनिया को क्या दिया है या क्या उससे लिया है –
आइये देखते हैं कि सन 1900 से 2018 के दौरान नोबेल प्राइज हासिल करने वालों में हम कहाँ है और बाक़ी दुनिया कहाँ है –
पूरी दुनिया में यहूदियों की आबादी ज़्यादा से ज़्यादा एक करोड़ पचास लाख है और मुसलमानों की आबादी लगभग सौ करोड़ पचास लाख। या कह लीजिये कि पूरी दुनिया की आबादी के मुक़ाबले सिर्फ 0.2% . लेकिन नोबेल पाने वालों में उनकी तादाद 21.97% है। आज तक कुल 892 लोगों को नोबेल दिया जा चुका है उसमे से 196 नोबेल यहूदियों के नाम हैं। यहूदियों के मुक़ाबले मुसलमानों की आबादी लगभग सौ गुना है लेकिन कुल मिलाकर सिर्फ तीन नोबेल। सिर्फ़ तीन। ये है दुनिया को हमारा योगदान।
हो दरअसल ये रहा है कि पिछली एक सदी से हम पहले साइंस और जदीद टेक्नोलॉजी को हराम क़रार देते हैं और फिर मजबूरन उसे अपना भी लेते हैं।
मोबाइल हराम, इंटरनेट हराम, फेसबुक हराम, ट्विटर हराम, टीवी हराम, तस्वीर बनाना हराम ……..
*लगता है उम्मत सिर्फ़ हराम और हलाल का फ़र्क़ करने में ही ख़त्म हो जाएगी !