बिहार उपचुनाव: असली मजा तो तब आता, जब मैदान-ए-जंग में सब ‘नए कैंडिडेट’ होते

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नई दिल्ली: बिहार उपचुनाव को कई लोग नीतीश बनाम तेजस्वी की लड़ाई मान रहे थे. नतीजा यह हुआ कि तेजस्वी ने नीतीश कुमार को पटखनी दे दी और एक लोकसभा सीट और एक विधानसभा सीट पर पार्टी ने फिर से कब्जा जमा लिया. अररिया लोकसभा सीट और जहानाबाद विधानसभा सीट पर लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने जीत दर्ज कर ली और अपनी पहले की स्थिति को बरकरार रखा. अररिया में राजद के उम्मीदवार सरफराज आलम ने 50 फीसदी वोट हासिल कर अपने पिता तस्लीमउद्दीन आलम की सीट पर अपनी उपस्थिति कायम रखी. वहीं, जहानाबाद में राजद उम्मीदवार कुमार कृष्ण मोहन यादव ने 55.5 फीसदी वोटों के साथ जदयू के अभिराम शर्मा को हरा कर दिवंगत पिता की सीट को हासिल कर लिया. हालांकि, कांग्रेस के कोटे में गई भभुआ सीट पर महागठबंधन कमाल नहीं दिखा पाई और बीजेपी की रिंकी रानी पांडेय यहां जीतने में कामयाब रहीं.

इस तरह से बिहार उपचुनाव के परिणामों को देखें तो राजद महागठबंधन ने बीजेपी गठबंधन को 3-1 से मैच हरा दिया है. कुछ लोग इस चुनाव को तेजस्वी की राजनीति में सेमीफाइनल मान रहें हैं, तो कुछ लोग इसे नीतीश कुमार की खत्म होती लोकप्रियता का हवाला दे रहे हैं. मगर बुधवार को आए चुनाव परिणाम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो अचरज में डालता हो. बिहार उपचुनाव के रिजल्ट ठीक उम्मीदों के अनुरूप ही आया है. दरअसल, अगर बिहार के इन चुनावों को कोई राजनीति की कसौटी पर तौल कर इसे राजद महागठबंधन की महाजीत के तौर पर देख रहा है, तो उसे पहले यह जान लेने की आवश्यकता है कि बिहार में जिन-जिन उम्मीदवारों की जीत हुई है, उसकी जड़ में सबको मिले सहानुभूति वोट ही दिखते हैं. यह उपचुनाव दूरगामी साबित तब होता जब सभी पार्टियों के ‘उम्मीदवार नए’ होते. यहां नए उम्मीदवार का मतलब है कि पहले इन सीटों पर जिन लोगों का कब्जा था उनके परिवार वालों को मिलने की बजाय अन्य लोगों को पार्टियां टिकट देती.

चाहे राजद के उम्मीदवार की जीतने की बात हो, या फिर बीजेपी. अगर आंकड़ों और इन सीटों के इतिहास पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि उपचुनाव में उन सीटों से उन्हीं लोगों की जीत हुई है, जिनके अपने इस सीट पर पहले काबिज थे. इस तरह से बिहार उपचुनाव के परिणाम को भले ही लोग नीतीश बनाम तेजस्वी मान रहे हों, मगर हकीकत यही है कि सब सहानुभूति का खेल था.

अररिया लोकसभा सीट: अररिया सीट पर राजद के उम्मीदवार सरफराज आलम की जीत हुई है. इस चुनाव में उन्हें 50 फीसदी वोट मिले हैं. इस सीट पर 2014 में तस्लीमुद्दीन आलम को 41.8 फीसदी वोट मिले थे. तस्लीमुद्दीन आलम सरफराज आलम के पिता थे, जिनकी मृत्यु हो जाने की वजह से यह सीट खाली था. इसी वजह से माना जा रहा है कि सरफराज की जीत में सहानुभूति वोट के शेयर सबसे अधिक हैं. इतना ही नहीं, यह राजनीतिक पार्टियां भी भलीभांति जानती है कि अगर सहानुभूति वोट पाकर जीत दर्ज करनी है तो मृतक के परिवार से ही किसी सदस्य को चुनावी अखाड़े में खड़ा कर दिया जाए.

जहानाबाद विधानसभा सीट: इस सीट पर भी राजद उम्मीदवार कुमार कृष्ण मोहन यादव ने जीत दर्ज की है. इस उपचुनाव में उन्हें 55.5 फीसदी वोट मिले हैं. इससे पहले इस सीट पर मुंद्रिका सिंह यादव का कब्जा था, जिनकी 2017 में मौत की वजह से उपचुनाव कराने पड़े. यहां भी गौर करने वाली बात है कि उपचुनाव में भी जीत मुंद्रिका सिंह यादव के बेटे कुमार कृष्ण मोहन यादव ने ही दर्ज की है. यहां भी उन्हें सहानुभूति वोट ही मिले हैं. यही वजह है कि राजद ने अपनी रुचि मुंद्रिका सिंह यादव के बेट कुमार कृष्ण यादव में दिखाई है.

भभुआ विधानसभा सीट: यह एक मात्र ऐसी सीट है जहां, बिहार-यूपी के उपचुनाव को मिलाकर बीजेपी ने जीत दर्ज की है. यहां से बीजेपी की रिंकी रानी पांडेय ने कांग्रेस के कैंडिडेट को हराया. इस सीट पर रिंकी रानी पांडेय को 48.1 फीसदी वोट मिले. यहां भी गौर करने वाली बात है कि रिंकी रानी पांडेय दिवंगत नेता आनंद भूषण पांडेय की पत्नी हैं, जिन्होंने इस सीट पर 2015 में 34.6 फीसदी वोट के साथ जीत दर्ज की थी. मगर उनकी मौत के बाद बीजेपी ने इस सीट से उनकी पत्नी रिंकी रानी पांडेय को मैदान में उतारा है और फिर से वह सहानुभूति वोट बटोरने में सफल हुईं.

इस तरह से अगर बिहार के उपचुनाव को राजनीति के नये आयाम से देखते हैं तो यह थोड़ी सी जल्दबाजी होगी. क्योंकि इस चुनाव में जैसे ही दिवंगत नेताओं के परिवार वालों को पार्टी की तरफ से टिकट मिले, वैसे ही समीकरण बनने लगे कि सहानुभूति वोट ही जीत सुनिश्तिच करेंगे. इस लिहाज से बिहार में कोई ऐसा राजनीतिक समीकरण नहीं देखने को मिले, जो यह बता साबित कर दे कि यह उपचुनाव तेजस्वी यादव बनाम नीतीश कुमार के लिए सेमीफाइनल है. दरअसल, इस चुनाव में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा जो अभी से ही यह मार्ग प्रशस्त कर दे कि अब बिहार में इस पार्टी को लोग पसंद करने लगे हैं. हालांकि, बिहार उपचुनाव की जगह 2019 लोकसभा चुनाव ही सभी दलों की राजनीतिक के लिए निर्णायक साबित होगा और उस चुनाव से यह पता चल जाएगा कि बिहार में कौन सी पार्टी भविष्य में कैसा प्रदर्शन करती दिखेगी.

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