भगवा रंग को इस बार कड़ी चुनौती

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भोपाल :  साल 2018 मध्यप्रदेश के लिए चुनावी साल है।म.प्र. में अब सियासी सरगर्मियां जोर पकड़ने लगी हैं,क्या इस बार भी शिवराज का जादू चल पायेगा। काँग्रेस की कमान इस बार कद्दावर नेता कमलनाथ के पास है। उनके साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया भी है। जिससे तय है इस बार कि टक्कर कांटे की होगी।

भगवा रंग को फीका करने की चुनौती से वे कैसे पार पाएंगे यह देखने लायक होगा। मध्यप्रदेश की मौजूदा सियासी तस्वीर पर फ़िलहाल भगवा रंग चढ़ा हुआ है। मध्यप्रदेश में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच होता है। 2003 से भाजपा की सरकार है।

इससे पहले 10 साल कांग्रेस ने राज किया था। आखिरी बार विधानसभा चुनाव 2013 में हुए थे, और भाजपा ने कुल 230 विधानसभा सीटों में से 165 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी। कांग्रेस 58 सीटों पर सिमट गई थी। बसपा ने 4 और अन्य ने 3 सीटों पर जीत दर्ज की थी।2013 के विधानसभा चुनावों में शिवराज फैक्टर जबरदस्त चला था। 2008 की तुलना में भाजपा को 22 सीटें ज्यादा मिली थीं, वहीं कांग्रेस को 13 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा था।

मध्यप्रदेश की सबसे ज्यादा 38 सीटें जबलपुर संभाग यानी महाकौशल क्षेत्र में हैं। दूसरे नंबर पर इंदौर (मालवा क्षेत्र) संभाग है, जहां 37 सीटें हैं। रीवा संभाग में 30 और ग्वालियर चंबल संभाग में 34 सीटें हैं। सागर संभाग में 26, भोपाल संभाग में 25, उज्जैन में 29 और होशंगाबाद में कुल 11 सीटें हैं।

ग्वालियर-चंबल संभाग में ज्योतिरादित्य सिंधिया का दबदबा है, 2013 में वहां भी कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा था। यहां की 34 सीटों में कांग्रेस को महज 12 पर जीत मिली, जबकि कांग्रेस को इस क्षेत्र से बड़ी उम्मीद थी। भाजपा को 2008 की तुलना में 7 सीटें ज्यादा मिली थीं।मौजूदा स्थिति में ग्वालियर भाजपा नेताओं का गढ़ है। राज्यसभा सांसद और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा, माया सिंह, कप्तान सिंह, लोकसभा सांसद व भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर के साथ ही यशोधरा राजे सिंधिया इसी जिले से हैं।

38 विधानसभा सीट वाला महाकौशल, आधे से ज्यादा मध्यप्रदेश यानि महाकौशल, विंध्य और बुंदेलखंड में चुनावी जीत हार का गणित फिट करता है। 2013 में महाकौशल में कांग्रेस के कद्दावर नेता कमलनाथ स्टार प्रचारक थे। लेकिन इस बार चुनावी कमान उनके पास है इससे पांसा पलट सकता है। यहां भाजपा को 24 और कांग्रेस को 13 सीटें मिलीं थी। इस बार भी भाजपा यहां कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। यही कारण है कि यहां प्रभाव रखने वाले सांसद राकेश सिंह को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया गया है।

कांतिलाल भूरिया के संसदीय क्षेत्र झाबुआ में तो 2013 में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई थी। विंध्य क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा है, जहां 2013 में पार्टी की लाज बच गई थी। यहां नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का प्रभाव है। 2008 में कांग्रेस को यहां 30 में महज दो सीटें मिली थीं जबकि 2013 में वह 12 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी।

मालवा में इंदौर जिले की नौ विधानसभा सीटों के अलावा धार, देवास, झाबुआ, उज्जैन, शाजापुर-आगर, रतलाम, मंदसौर और नीमच जिले की सीटें हैं। वहीं खंडवा, बुरहानपुर, खरगोन और बड़वानी की सीटें निमाड़ में आती हैं।मालवा-निमाड़ भाजपा का गढ़ रहा है, जहां कुल 66 सीटें हैं। 2008 के चुनाव में इन 66 में से 40 सीटें भाजपा ने जीती थी और 25 कांग्रेस ने। एक पर निर्दलीय का कब्जा था। वहीं 2013 में भाजपा की बढ़त 56 पर पहुंच गई।

भोपाल और आसपास की 36 में से 29 सीटों पर कांग्रेस हार गई।2013 में इंदौर की नौ में से आठ सीटों पर भाजपा ने कब्जा जमाया था। धार जिले की सरदारपुर, मनावर, धरमपुरी, धार और बदनावर सीटों पर भाजपा जीती थी। कांग्रेस को सिर्फ कुक्षी में जीत मिली थी।

इस बार मालवा क्षेत्र में किसान आंदोलन के साथ भाजपा की स्थिति कमजोर हुई है। भाजपा ने मालवा अंचल में अपनी पूरी ताकर झोंक दी है। वर्तमान स्थिति को देखते हुए कांग्रेस इस बार भाजपा को कड़ी चुनौती दे रही है। पलड किसी भी ओर झुक सकता है।

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