लालजी टंडन-अवधी संस्कारों वाले अनूठे नायक

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अरविंद कुमार सिंह

जिन्होंने चंद्रभानु गुप्त जैसे दिग्गज को नहीं देखा रहा हो वे टंडनजी में उनका रूप देख सकते थे। राजनीतिक विरोधी भी बाकियों की भले आलोचना करते रहे हों लेकिन लालजी टंडन का हमेशा सम्मान करते थे। उऩ्होने रात दिन श्रम करके ही लोगों के बीच अपना आधार और साख बनायी थी। लखनऊ उनके दिलों में बसा था और वहीं से रहते हुए उन्होने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बनायी। वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने लायक थे लेकिन मुख्यमंत्री बनने के लिए उनके साथ जाति का अवरोध था। वही अवरोध जिसने राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे दिग्गज को उत्तर प्रदेश का पहला मुख्यमंत्री बनने से रोक दिया था। लेकिन उससे उनकी राजनीति पर असर नहीं पड़ा। वे अपनी तरह के अकेले राजनेता थे। मेरी उनसे पहली बार मुलाकात 1985 में हुई थी। लेकिन 1991 के बाद कई बार मिला। हालांकि प्रगाढ़ता मेरे मित्र आशीष मेहरोत्रा के नाते आयी। हाल में 15 से 19 जनवरी के दौरान लखनऊ में राष्ट्रमंडल संसदीय संघ (CPA) भारत क्षेत्र के सातवें सम्मेलन के दौरान लखनऊ में एक संक्षिप्त भेंट हुई थी, जो आखिरी थी। जहां से उनका जन्म हुआ, उनकी राजनीति शुरू हुई वहीं उनकी आखिरी सांस निकली। अवध की राजनीति के वे केंद्र बिंदु रहे और जनता से बेहद सम्मानजनक बाबू जी संबोधन पाया।
टंडनजी का राजनीतिक सफर दरअसल 1962 में लखनऊ नगर पालिका के सभासद के रूप में आरंभ हुआ। कुछ ऐसा ही सफर 1928 में चंद्रभानु गुप्त का सफर भी आरंभ हुआ था। लेकिन वे चार बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे बहुत बार मंत्री रहे। लेकिन टंडनजी के सामने वैसा मौका नहीं था। जीवन का बड़ा हिस्सा विपक्षी राजनीति में बीता लेकिन जब भी जिस भूमिका में भी रहे लखऩऊ के विकास के लिए लगातार काम करते रहे।
हाल में मध्य प्रदेश की राजनीति में बहुत सा उथल पुथल हुआ। ऐसे उथल पुथल के दौरान किसी भी राज्य में राज्यपाल की भूमिका पर सवाल खड़ा ही होता रहा है। लेकिन मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच पत्राचार का सिलसिला चला। उच्चतम न्यायालय ने टंडनजी के निर्देश के पक्ष में ही फैसला सुनाया। किसी ने उनकी आलोचना नहीं की। उत्तर प्रदेश की पहली मायावती सरकार बनी तो उसमें भी टंडनजी भूमिका थी। बसपा और भाजपा के संबंध खराब हुए लेकिन टंडनजी से बने रहे। वे अपने घनघोर राजनीतिक विरोधियों से भी कभी रिश्ते खराब नहीं रखते थे। क्षणिक आक्रोश आ जाये वह अलग बात थी लेकिन वह क्षणिक ही होता था।
वे किसी भी भूमिका में रहे हों राजनीति में संस्कार और शिष्टाचार को हमेशा बनाए रखा। उत्तरप्रदेश विधानसभा में सितंबर 2003 से मई 2007 तक नेता प्रतिपक्ष भी रहे। उत्तर प्रदेश सरकार में लंबे समय तक कैबिनेट मंत्री रहे। लेकिन वे जनसंघ के युवा संस्थापक सदस्यों में थे। दो बार सभासद रहने के बाद 1974 में लखनऊ पश्चिम विधानसभा सीट से डेढ़ हजार वोटों से चुनाव हार गए लेकिन लखनऊ महानगर जनसंघ के अध्यक्ष के रूप में काम जारी रखा और जेपी आंदोलन में उत्तर प्रदेश में अहम भूमिका निभायी। मई 1978 में वे विधान परिषद में पहुंचे और 1984 तक सदस्य रहे। 1990 से 1996 तक वे विधान परिषद में नेता सदन भी रहे। कल्याण सिंह की पहली सरकार बनी तो उसमे वे ऊर्जा, आवास और शहरी विकास मंत्री रहे। दो मौकों पर फिर वे आवास एवं नगर विकास मंत्री रहे। 2009 का लोक सभा चुनाव भी उन्होने लखनऊ से जीता था। लेकिन बीच के दौर में वे खाली भी रहे। हां अगस्त 2018 में बिहार का राज्यपाल उनको बनाया गया फिर जुलाई 2019 से मध्य प्रदेश के राज्यपाल थे। उनकी पांच दशक से अधिक की राजनीति में अटलजी का गहरा साथ और उनका असर साफ देखा जा सकता है। अटलजी ने 1955 में श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित द्वारा खाली की गयी लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा लेकिन पराजित हुए। दो साल बाद 1957 में बलरामपुर से जीत कर संसद पहुंच गए। इसी सीट से 1962 में वे कांग्रेस की सुभद्रा जोशी से हार गए, जिसका बदला उन्होंने 1967 में जीत कर चुकाया। 1991 के बाद अटलजी लखनऊ से ही सांसद रहे। तब तक वे तीन राज्यों में लोकसभा की छह विभिन्न सीटों पर बारह चुनाव लड़ चुके थे जिसमें से सात बार विजयी रहे। उनको पराजित करने के सपने के साथ डॉ. कर्ण सिंह से लेकर राम जेठमलानी जैसे दिग्गज भी लखनऊ पहुंचे लेकिन अटलजी को डिगा नहीं पाए क्योकि उनकी चुनावी बागडोर टंडनजी संभालते थे। टंडनजी से एक बार मैने पूछा कि उत्तराखंड उत्तर प्रदेश से अलग हो गया है…सारे तीर्थ वहां चले गए हैं. पर्यटक स्थल भी। क्या करेंगे आप लोग। कहने लगे कि जो है उसको ठीक करना पड़ेगा। हम गढ़मुक्तेश्वर को हरिद्वार बना सकते हैं..बहुत कुछ बताया था।

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