तो क्या कल्याण से राम और मुलायम से अल्लाह नाराज हैं !

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नवेद शिकोह

भाजपा के हिन्दुत्ववादी नेता रहे कल्याण सिंह और सपा के अध्यक्ष रहे मुलायम सिंह के बोये हुए बीज का वट वृक्ष तैयार हो चुका है। दो अलग-अलग दिशाओं और विचारधाराओं के इन दिग्गज नेताओं की फसल 26 वर्ष पहले पहली बार खूब लहलहायी थी। ध्रुवीकरण की आंधी में एम-वाई फैक्टर ने समाजवादी पार्टी को ताकत दी और इस दल ने कई बार यूपी में सरकार बनायी। इसी तरह हिन्दुत्व की लहर कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक ले गयी। इसी लहर में भाजपा को केंद में सरकार बनाने का मौका मिला था। अटल बिहारी वाजपेयी, एल के आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और कल्याण सिंह जैसे पंच तारे हिन्दुत्व के आसमान पर चमके थे।
26 वर्ष बाद एक बार फिर अयोध्या नगरी में कल्याण – मुलायम के बोये हुए बीज नयी फसल देने को तैयार हैं।
लेकिन इसे वक्त की ताकत या एक बड़ी विडंबना ही कहिये कि ये दोनों नेता परिस्थितियों वश अयोध्या मामले से अलग हैं। ये चाह कर भी मंदिर-मस्जिद की राजनीति में खामोश रहने पर मजबूर हैं।
हांलाकि ध्रुवीकरण.. हिन्दू-मुस्लिम.. बाबरी मस्जिद – राम जन्मभूमि की लहर पहले से भी ज्यादा तेज चल रही है। धर्म की राजनीति की तरक्की का ये आलम है कि अब सिर्फ अल्लाह और भगवान राम ही नहीं बटे हैं मौजूदा वक्त के बड़े हिन्दूवादी नेता/यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अली और बजरंगबली का भी अलग-अलग पार्टियों में बंटवारा कर दिया है।
इन सब के बीच अयोध्या मसले और ध्रुवीकरण की राजनीति के दोनों धुरंधर अलग-अलग कारणों रास्ते बदल चुके हैं। भाजपा की नयी ताकतवर जमात ने पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सियासत के आंगन से बाइज्जत विदा कर दिया। तकनीकी लेहाज से कल्याण सिंह अब भाजपा के नहीं रहे। अब उन्हें संवैधानिक पद के दायरों और गरिमा का पालन करना है।

पिछड़ों को साथ लेकर हिन्दुओं में एकता कायम कर भाजपा को ताकत देने वाले कल्याण रामभक्त भी हैं और राम मंदिर के हक के लिए हिन्दुओं मे जागृति पैदा करने के नायक भी रहे थे। अब जब अयोध्या की राजनीति का पुराना मौसम वापस लौटा है तो राम भक्त कल्याण के अंदर कुछ कर गुजरने की ख्वाहिशों उन्हें जरूर सताती होंगी। अभी हाल में ही उनसे कुछ पत्रकारों ने ऐसा ही सवाल किया था। ये वो पत्रकार थे जो सन 90-92 में राम मंदिर आंदोलन और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को कवर करते थे। इन पत्रकारों के जटिल सवाल का स्पष्ट जवाब तो वो नहीं दे सकते थे लेकिन एक शेर के साथ उन्होंने अपने मनोभावना व्यक्त किये थे –
दौलत हो या हुकूमत, ताकत हो या जवानी,
हर चीज़ मिटने वाली, हर चीज आनी-जानी।

सच यही है कि वक्त बलवान है। निर्देशक बनकर जिससे चाहे भी चरित्र निभाने का निर्देश दे सकता है।
होइए वही जो राम रचि राखा। शायद अब श्री राम को ही मंज़ूर ना हो कि हिन्दुत्व की सियासत के दिग्गज रहे कल्याण सिंह राम मंदिर निर्माण के आंदोलन के लिए कल्याणकारी योगदान दें।

यही हाल पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का भी है।कथित खुदा की मस्जिद/अयोध्या के विवादित ढांचे को कार सेवकों के कहर से बचाने के लिए राम भक्तों पर गोलियां चलवाने वाले मुलायम सिंह यादव अब फिर इस मसले पर राजनीति करें, शायद ये खुदा को ही मंजूर नहीं। 26 वर्षों में सरयू और गोमती के पानी के साथ वक्त ने बहुत कुछ बदल दिया है। राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का मुद्दा आज फिर गर्म है लेकिन इस मसले की कभी केंद्र बिंदु यही सपा में ही अब मुलायम सिंह की नहीं चलती। वो अपनी ही पार्टी के अध्यक्ष नहीं रहे। उनके पुत्र और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने तरीके से पार्टी चला रहे हैं।
वक्त का तकाजा भी यही था कि सपा अपनी पुरानी मुलायमवादी मुस्लिम परस्ती वाली नीतियों पर विराम लगा दे। क्योंकि भाजपा की तरफ बढ़े पिछड़ों यहां तक कि आधे से ज्यादा यादव समाज को भाजपा ने यहीं अहसास दिलाया था कि सपा सिर्फ मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए है। सपा से पिछड़ा टूटा और मुसलमान बिखर गया। बस यही बदलाव ने यूपी में भाजपा को कामयाबी की बुलंदियों पर पंहुचा दिया। जिसके बाद सपा सहित कांग्रेस और बसपा जैसे धर्मनिरपेक्ष दल मुस्लिम परस्ती और अयोध्या मसले से दूर होने लगे।
मुस्लिम समाज को अब किसी धर्मनिरपेक्ष दल में अपने महत्व का अक्स भी नजर नहीं आ रहा है। हिन्दू समाज भी कंफ्यूज है। उसे लगता है कि हमारी आस्था के केंद राम जन्म भूमि को भाजपा ने खूब उभारा लेकिन भाजपा की ताकतवर सरकारें मंदिर निर्माण पर कोई ठोस स्टेंड क्यों नहीं ले पा रही है।
माहौल तो हिन्दू-मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद का बना हुआ है लेकिन पहले की तरह ना कोई राम भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए कदम उठा रहा है और ना कोई दल मुसलमानों की सरपरस्ती का राग आलाप रहा है।
सचमुच समय एक सा नहीं रहता-

दौलत हो या हुकूमत, ताकत हो या जवानी,
हर चीज़ मिटने वाली, हर चीज़ आनी-जानी।

 

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